गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण मार्कण्डेय पुराणगीताप्रेस
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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...
धर्मपक्षी द्वारा जैमिनि के प्रश्नों का उत्तर
मार्कण्डेयजी कहते हैं- जैमिनि! इस प्रकार वे द्रोणके पुत्र चारों पक्षी ज्ञानी हैं और विन्ध्यगिरिपर निवास करते हैं। तुम उनकी सेवामें जाओ और उनसे ज्ञातव्य बातें पूछो।
मार्कण्डेय मुनिकी यह बात सुनकर महर्षि जैमिनि, विन्ध्यपर्वतपर, जहाँ वे धर्मात्मा पक्षी रहते थे, गये। उस पर्वतके निकट पहुँचने पर पाठ करते हुए उन पक्षियोंकी ध्वनि उनके कानोंमें पड़ी। उसे सुनकर जैमिनि बड़े विस्मयमें पड़े और इस प्रकार सोचने लगे- 'अहो! ये श्रेष्ठ पक्षी बहुत ही स्पष्ट उच्चारण करते हुए पाठ कर रहे हैं; जिस अक्षरका कण्ठ-तालु आदि जो स्थान है, उसका वहींसे उच्चारण हो रहा है। बोलने में कितनी शुद्धता और सफाई है। ये अविराम पाठ करते जा रहे हैं, रुककर साँसतक नहीं लेते। श्वासकी गतिपर इन्होंने विजय प्राप्त कर ली है। किसी भी शब्दके उच्चारणमें कोई दोष नहीं दिखायी देता। ये यद्यपि निन्दित योनिको प्राप्त हुए हैं, तथापि सरस्वतीदेवी इनको नहीं त्याग रही हैं! यह मुझे बड़े आश्चर्यकी बात जान पड़ती है। बन्धु-बान्धवजन, मित्रगण तथा घरमें और जो प्रिय वस्तुएँ हैं, वे सभी साथ छोड़कर चली जाती हैं; परन्तु सरस्वती कभी त्याग नहीं करतीं।'*
* बन्धुवर्गस्तथा मित्रं यच्चेष्टमपरं गृहे।
त्यक्त्वा गच्छति तत्सर्वं न जहाति सरस्वती॥ (४।६)
इस प्रकार सोचते-विचारते हुए महर्षि जैमिनिने विन्ध्यपर्वतकी कन्दरामें प्रवेश किया। वहाँ जाकर उन्होंने देखा, वे पक्षी शिलाखण्डपर बैठे हुए पाठ कर रहे हैं। उनपर दृष्टि पड़ते ही महर्षि जैमिनि हर्षमें भरकर बोले- 'श्रेष्ठ पक्षियो! आपका कल्याण हो। मुझे व्यासजीका शिष्य जैमिनि समझिये। मैं आपलोगों का दर्शन करने के लिये उत्कण्ठित होकर यहाँ आया हूँ। आपके पिता ने अत्यन्त क्रोधमें आकर जो आपलोगों को शाप दे दिया और आपको पक्षियोंकी योनिमें आना पड़ा, उसके लिये खेद नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह सर्वथा दैव का ही विधान था। तपस्या का क्षय हो जानेपर मनुष्य दाता होकर भी याचक बन जाते हैं। स्वयं मारकर भी दूसरोंके हाथसे मारे जाते हैं तथा पहले दूसरोंको गिराकर भी स्वयं दूसरोंके द्वारा गिराये जाते हैं। इस प्रकार आनेवाली विपरीत दशाएँ मैंने अनेक बार देखी हैं। भावके बाद अभाव तथा अभावके बाद भाव, इस प्रकार भावाभावकी परम्परा से संसारके लोग निरन्तर व्याकुल रहते हैं। आपलोगों को भी अपने मनमें ऐसा ही विचार करके कभी शोक नहीं करना चाहिये। शोक और हर्षके वशीभूत न होना ही ज्ञानका फल है।'
तदनन्तर उन धर्मात्मा पक्षियोंने पाद्य और अर्घ्यके द्वारा महर्षि जैमिनिका पूजन किया और उन्हें प्रणाम करके उनकी कुशल पूछी। फिर अपने पंखों से हवा करके उनकी थकावट दूर की। जब वे सुखपूर्वक बैठकर विश्राम ले चुके, तब पक्षियोंने कहा- 'ब्रह्मन्! आज हमारा जन्म सफल हो गया। यह जीवन भी उत्तम जीवन बन गया; क्योंकि आज हमें आपके दोनों चरण- कमलों का दर्शन मिला, जो देवताओं के लिये भी वन्दनीय हैं। हमारे शरीर में पिताजीके क्रोधसे प्रकट हुई जो अग्नि जल रही है, वह आज आपके दर्शनरूपी जलसे सिंचकर शान्त हो गयी। ब्रह्मन् ! आप कुशल से तो हैं न? आपके आश्रम में रहनेवाले मृग, पक्षी, वृक्ष, लता, गुल्म, बाँस और भाँति-भाँतिके तृण-इन सबकी कुशल है न? इनपर कोई संकट तो नहीं है? अब हमपर कृपा कीजिये और यहाँ अपने आगमन का कारण बतलाइये। हमारा कोई बहुत बड़ा भाग्य था, जो आप इन नेत्रोंके अतिथि हुए।'
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